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अपनी सोयाबीन फसल को इस तरह बचाएं कीट एवं बीमारियों से

सोयाबीन भारत की प्रमुख खरीफ फसल है जो कि 108 लाख हे. क्षेत्र में उगायी जाती है। इसका लगभग 50 प्रतिशत के आस पास अकेले ही मध्य प्रदेश उगाता है। वर्तमान समय में म. प्र. विभिन्न सोयाबीन की बीमारियों का सामना कर रहा है जिसमें चारकोल सडऩ, पर्णीय-झुलसन तथा पीला मोजेक आदि प्रमुख समस्या है जो कि इसके उत्पादन पर बुरा असर डाल रही है। इस लेख में सोयाबीन में आने वाली प्रमुख बीमारियों का संक्षिप्त व्याख्यान व प्रबंधन बताया जा रहा है जो कि उसके सफलतम उत्पादन के लिए नितांत आवश्यक है।

 

चारकोल सडऩ

रोगजनक:- मैक्रोफोमिना फेसियोलिना

प्रसार:- बीज जनित एवं बीज

पहचान:

  • रोग के लक्षण सामान्यत: फसल पर बाद की अवस्था (प्रजनक अवस्था) में दिखाई देते है।
  • गर्म एवं शुष्क मौसम में पत्तियां हल्की हरी से पीली होकर मुरझाा जाती है परंतु पौधे से लगी रहती है व धीरे-धीरे पौधे मर जाते हंै।
  • यदि तनों के ऊपर की छाल को अलग कर के देखें तो काले रंग की अतिसूक्ष्म स्क्लेरोशिया दिखाई देती है। जिसकी वजह से संक्रमित ऊतक मटमैले काले रंग के दिखाई देते है ।

अनुकूल परिस्थितियां: अत्यधिक पौध संख्या, अधिक मृदा कठोरता, फसल की प्रारंभिक अवस्था में अधिक मृदा नमी, एवं पोषक तत्वों की मृदा में कमी होने पर रोग की संभावना अधिक होती है।

प्रबंधन:

  • बुवाई हेतु रोग प्रतिरोधक या सहनशील नयी प्रजातियों जैसे जे. एस. 20-34, जे.एस. 20-69, जे.एस. 20-98, आर व्ही एस 2001-4, एन.आर.सी.-86 इत्यादि का चयन करें।
  • बीज उपचार कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत+थायरम 37.5 प्रतिशत, 2-3 ग्राम या थायोफिनेट मिथाइल 450 $ पाइराक्लास्ट्रोबिन 50 दवा 1.5-2 मि.ली का प्रति किलो बीज या ट्राइकोडर्मा हर्जियानम 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से प्रयोग करें।
  • चारकोल सड़़ऩ से ग्रसित खेतों में बोनी से पूर्व 8-10 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा हर्जियानम को 12-15 कि.ग्रा. पकी गोबर की खाद में मिलाकर लगभग एक सप्ताह रखने के बाद बोनी पूर्व प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी तरह मिला दें।
  • उचित फसल चक्र अपनायें।
  • प्रजनक अवस्था पर पानी के कमी होने पर खेत मैं सिंचाई करें।
  • चारकोल जड़ सडऩ एवं झुलसन जैसी बीमारियों के नियंत्रण हेतु गर्मी में गहरी जुताई करें।

 

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कालर सडऩ

रोगजनक:- स्क्लेरोशियम रोल्फसाई
प्रसार:- मृदा जनित

पहचान:

  • पौधों का पीला पडऩा अथवा मुरझाना रोग का प्रारम्भिक लक्षण है।
  • रोगजनक पौधे के कालर (स्तम्भ मूल संधि) क्षेत्र पर आक्रमण कर उसे क्षतिग्रस्त कर देता है एवं तना सिकुड़कर संक्रमित भाग से टूट जाता है।
  • रोगग्रस्त भागों एवं संक्रमित पौधों के चारों ओर मृदा पर फफूंद का सफेद कवकजाल दिखाई देता है जिसमें बहुत सारी छोटी, गोल, भूरे रंग की सरसों के बीज के समान संरचनाएं निर्मित हो जाती है।

अनुकूल परिस्थितियां: गर्म एवं नम मौसम, पास-पास बोई गई फसल, अधिक मृदा नमी, बिना सड़ी गोबर की खाद रोग के फैलने के लिए अनुकूल होते है।

प्रबंधन:

  • बीज उपचार हेतु कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत+थायरम 37.5 प्रतिशत, 2-3 ग्राम दवा का प्रति किलो बीज या ट्राइकोडर्मा हर्जियानम 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपयोग करें।
  • बुवाई हेतु रोग प्रतिरोधक या सहनशील व नयी प्रजातियों का चयन करें।

 

पीला मोजेक

रोगजनक:- मूंग बीन यलो मोजेक वायरस
संचरण:- सफेद मक्खी द्वारा

पहचान:

  • रोग पौधे की नई पत्तियों पर अनियमित चमकीले पीले धब्बों के रूप में प्रकट होता है।
  • पत्तियों पर पीला क्षेत्र बिखरा हुआ अथवा मुख्य शिराओं के साथ पीली पटटी के रूप में दिखाई देता है।

अनुकूल परिस्थितियांकम तापक्रम पर रोग की तीव्रता अधिक होती है।

प्रबंधन:

  • बुवाई हेतु रोग प्रतिरोधक या सहनशील व नयी प्रजातियों का चयन करें।
  • बीज उपचार थायामेथोक्साम 30 एफ.एस. नामक कीटनाशक से 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें।
  • समय से बोनी (20 जून से 5 जुलाई के मध्य) करें।
  • रोग के लक्षण दिखते ही ऐसे पौधे को तुरंत उखाड़कर नष्ट कर दें।
  • सफेद मक्खी के नियंत्रण हेतु खड़ी फसल में 35 दिन की अवस्था पर थायामेथोक्जाम 25 डब्ल्यू.जी. 100 ग्राम/हे. या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. दवा 600 मिली/हे का छिड़काव करें।

 

पर्णीय-झुलसन रोग

रोगजनक:- राइजोक्टोनिया सोलेनाई
प्रसार:- मृदा जनित

पहचान:

  • पर्णदाग पनीले धब्बों के रूप में दिखाई देते है, जो कि बाद में भूरे या काले रंग में परिवर्तित हो जाते है एवं संपूर्ण पत्ती झुलस जाती है।
  • नमी की अधिकता में पत्तियां ऐसे प्रतीत होती है जैसे पानी में उबाली गई हों ।
  • रोगग्रस्त भागों पर नमी की उपस्थिति में सफेद माइशिलियम व भूरे रंग की संरचनाएं दिखाई देती है।

अनुकूल परिस्थितियां: घनी बोयी गयी फसल, लगातार वर्षा तथा खराब जल निकास

प्रबंधन:

  • बीज उपचार कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत+थायरम 37.5 प्रतिशत, 2-3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से फसल को प्रारंभिक अवस्था में रोगग्रस्त होने से बचाया जा सकता है।
  • उचित जल निकास व अनुशंसित दूरी पर बुवाई करें।
  • रोग प्रतिरोधक, सहनशील व नयी उन्नत जातियों जैसे जे. एस. 20-34, जे.एस. 20-69, जे.एस. 20-98, आरव्हीएस 2001-4, एन.आर.सी.-86 आदि का प्रयोग करें।
  • उचित फसल चक्र अपनायें।

पर्णीय धब्बे रोग:- सोयाबीन में विभिन्न प्रकार के पर्णीय धब्बे रोग लगते है जो कि आमतैर पर फली निर्माण से फली पकने तक फसल उत्पादन को प्रभावित करते है। यह रोग पिछले वर्ष के फसल अवशेष व संक्रमित बीज से फैलते है। अधिक वर्षा, नमी एवं अधिक तापक्रम रोग के लिए अनुकूल होते है।

 

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मायरोथीसियम पर्ण दाग

रोगजनक:- मायरोथीसियम रोरिडम

पहचान:-

  • पत्तियों पर छोटे, गोल से अण्डाकार धब्बे जो कि किनारों पर गहरे भूरे से बैंगनी रंग के होते हैं तथा रोग के लक्षण तना एवं फली पर भी दिखाई देते है।
  • बाद में ये धब्बे आपस में मिलकर अनियमित आकार के बड़े धब्बे बनाते है तथा इन धब्बों में फफूंद के गहरे मटमैले रंग के फलनकाय बन जाते है।

 

फ्रागआई पर्ण दाग

रोगजनक:- सर्कोस्पोरा सोजिना

पहचान:-

  • पत्तियों के ऊपर विभिन आकार के धब्बे जिनका किनारा गहरा भूरा होता है ।
  • बाद में इन धब्बों का मध्य भाग हल्के भूरे से राख के रंग में परिवर्तित हो जाता है जो की इसकी विशिष्ट पहचान है तथा धब्बे आपस में मिलकर बड़े, अनियमित आकार के धब्बे बनाते है।

 

अल्टरनेरिया पर्ण दाग

रोगजनक:- अल्टरनेरिया टेन्यूस

पहचान:-

  • पत्तियों पर भूरे सकेन्द्रिय धब्बे बनते है जो कि आपस में मिलकर अनियमित आकार के बड़े धब्बे में बदल जाता हैै।
  • रोगग्रस्त पत्तियां बाद में सूख जाती है, एवं परिपक्व होने से पूर्व हो गिर जाती है।
  • पर्णीय धब्बों का प्रबंधन:
  • स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें।
  • अनुमोदित पौध संख्या का अनुसरण करें एवं पौध संख्या अधिक होने कि स्थिति में विरलीकरण करें।
  • रोग प्रतिरोधक, सहनशील व नयी जातियों का प्रयोग करें।
  • फसल अवशेषों को नष्ट कर दें।
  • बीज उपचार हेतु कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत+थायरम 37.5 प्रतिशत, 2-3 ग्राम दवा का प्रति किलो बीज अनुसार प्रयोग करें।
  • फफूंदीनाशकों का छिड़काव करें इसके लिए पाइराक्लास्ट्रोबिन 20 प्रतिशत डब्लू. जी. 375-500 ग्राम/हे. या टेबुकोनाजोल 10 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. $ सल्फर 65 प्रतिशत डब्ल्यू.जी. 1250 ग्राम/हे. के हिसाब से बोनी के 50 दिनों के बाद 15 दिन के अंतराल पर दो छिड़काव करें।

 

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