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मूंग में लगने वाले रोग एवं प्रबंधन

Posted on March 25, 2023March 25, 2023

पीला मोज़ेक

– पीला मोज़ेक रोग मूंग की सबसे विनाशकारी और व्यापक रूप से फैलने वाली बीमारी है। यह रोग मूंग की पीली मोज़ेक विषाणु के कारण होता है और सफेद मक्खी द्वारा फैलता है। उपज की हानि लगभग  10 से 100 प्रतिशत तक होती है, यह उस फसल अवस्था पर निर्भर करता है जिस पर पौधे संक्रमित होते हैं।

लक्षण : पहले दिखाई देने वाले लक्षण संक्रमित पत्तियों पर अनियमित पीले धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं जो आपस में मिलकर बड़े धब्बे एक हो जाते हैं। अंतत: पूरी पत्तियाँ पीली होकर सूख जाती हैं। गंभीर रूप से संक्रमित पौधों की फलियों और बीजों पर भी पीले धब्बे देखे जा सकते हैं।

प्रबंधन: रोग प्रतिरोधी अथवा सहनशील किस्मों जैसे टी.जे.एम.-3, के-851, पंत मूंग -2, पूसा विशाल, एच.यू.एम. -1 का चयन करें। प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें। बीज की बुवाई जुलाई के प्रथम सप्ताह तक कतारों में करें प्रारम्भिक अवस्था में रोग ग्रसित पौधों को उखाडक़र नष्ट करें। यह रोग विषाणु जनित है जिसका वाहक सफेद मक्खी कीट है जिसे नियंत्रित करने के लिये ट्रायजोफॉस 40 ईसी, 2 मिली प्रति लीटर अथवा थायोमेथोक्सम 25 डब्ल्यू. जी. 2 ग्राम/ली. या डायमिथिएट 30 ई.सी. 1 मिली./ली. पानी में घोल बनाकर 2 या 3 बार 10 दिन के अंतराल पर आवश्यकतानुसार छिडक़ाव करें।

 

एंथ्रेक्नोज (श्याम वर्ण रोग)

इस रोग के कारण फसल की उत्पादकता व गुणवत्ता दोनों प्रभावित होती है। उत्पादन में लगभग 24 से 64 प्रतिशत तक की कमी आती है। बादल युक्त मौसम के साथ-साथ उच्च आद्र्रता व 26 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान इस रोग का प्रमुख कारक है। फसल में रोग उत्पन्न करने वाले प्राथमिक स्रोत युक्त बीज तथा रोग युक्त फसल अवशेष होते हैं।

लक्षण: इस रोग की पहचान पत्तियों में गंभीर धब्बे के रूप में होती है, जिसके परिणामस्वरूप अंतत: ‘शॉट होल’ के लक्षण दिखाई देते हैं और अंत में पत्ती झड़ जाती है। बीजपत्रों और अंकुरों के युवा तनों पर भूरे, धंसे हुए घाव बन जाते हैं। गीली स्थितियों के दौरान, घावों का आकार और संख्या बढ़ जाती है और नए पौधे मर जाते हैं।

प्रबंधन :  बुवाई से पहले थीरम या कैप्टान ञ्च 2-3 ग्राम/किलो बीज से उपचारित प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। जब लक्षण दिखाई देने लगें, तो 15 दिनों के अंतराल पर 0.2त्न जिऩेब या थीरम ञ्च का छिडक़ाव करें। कार्बेन्डाजिम या मेनकोजेब ञ्च 0.2त्न का पर्णीय छिडक़ाव भी प्रभावी पाया गया है।

चूर्णी फफूंद

यह रोग गर्म या शुष्क वातावरण में जल्दी फैलता हैं। यह रोग फसल में वायु द्वारा परपोषी पौधों से फैलता है। यह कवक एक मौसम से दूसरे मौसम में संक्रमित पौध अवशेषों पर जीवित रहता है जो प्राथमिक द्रव्य (रोग कारक कवक) के रूप में रोग फैलाते हैं। रोग के प्रसार की उग्र अवस्था में यह लगभग 21 प्रतिशत तक फसल को हानि पहुंचाता है।

लक्षण: रोग का संक्रमण सर्वप्रथम निचली पत्तियों पर कुछ गहरे (बदरंग) धब्बों के रुप में प्रकट होता है। धब्बों पर छोटे-छोटे सफेद बिन्दु पड़ जाते हैं जो बाद में बढक़र एक बड़ा सफेद धब्बा बनाते हैं। जैसे-जैसे रोग की उग्रता बढ़ती है यह सफेद धब्बे न केवल आकार में बढ़ते हैं। परन्तु ऊपर की नई पत्तियों पर भी विकसित हो जाते हैैं। अंतत: ऐसे सफेद धब्बे पत्तियों की दोनों सतह पर, तना, शाखाओं एवं फली पर फैल जाते हैं। इससे पौधों की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता नगण्य हो जाती है और अन्त में संक्रमित भाग झुलस/सूख जाते हैं।

प्रबंधन: रोग अवरोधी प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए। फसल पर घुलनशील गंधक का 0.2 प्रतिशत घोल का छिडक़ाव रोग का पूर्णत: प्रबंधन कर देता है। कवकनाशी जैसे कार्बेन्डाजिम (0.5 ग्रा./ली. पानी ) या केराथेन का (1 मि.ली./ली. पानी) की दर से घोल बनाकर छिडक़ाव से इस रोग का नियंत्रण हो जाता है। प्रथम छिडक़ाव रोग के लक्षण दिखते ही करें। आवश्यकतानुसार दूसरा छिडक़ाव 10-15 दिन के अंतराल पर करें।

सर्कोस्पोरा पर्णदाग

यह मूंग की एक महत्वपूर्ण कवक रोग है। शुरुआती बरसात का मौसम या शुष्क मौसम में रोग के संक्रमण में प्रसार के लिए आदर्श वातावरण है। गर्म तापमान, लगातार वर्षा, और उच्च आर्द्रता रोग के विकास में सहायक होते हैं।

लक्षण: इस रोग की पहचान आमतौर पर पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे से होती है, जो लाल बाहरी किनारों से घिरे होते हैं। ऊपरी सतह पर धब्बे स्पष्ट दिखाई देते हैं। अनुकूल जलवायु परिस्थितियों में धब्बे आपस में मिलकर बड़े धब्बे और रोगग्रस्त पत्तियों का निर्माण करते हैं संक्रमण आमतौर पर पुरानी पत्तियों से शुरू होता है। अधिक प्रकोप होने पर शाखाओं और फलियों पर भी धब्बे देखे जा सकते हैं।

प्रबंधन : खेत की सफाई, फसल चक्र, संक्रमित फसल अवशेषों को नष्ट करना और संपाशर््िवक मेज़बानों (ष्शद्यद्यड्डह्लद्गह्म्ड्डद्य द्धशह्यह्लह्य) से बचना फसल के आस-पास रोग की घटनाओं को कम करने में मदद मिल सकती है। बुवाई से पहले बीज को कवकनाशी कैप्टान या थीरम (2.5 ग्राम/किग्रा) से उपचारित करें। खेत में पौधे घने नहीं हों पौधों का 10 सेमी. की दूरी के हिसाब से विरलीकरण करें। रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब 75 डब्ल्यू. पी. की 2.5 ग्राम लीटर या कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. की 1 ग्राम/ली. दवा का घोल बनाकर 2-3 बार छिडक़ाव करें। एमएम-51 और अजरी-मूंग-06 जैसी प्रतिरोधी किस्में बोएं।

लीफ कर्ल

पर्ण व्याकुंचन रोग एक महत्वपूर्ण विषाणु जनित रोग है, पर्ण व्याकुंचन रोग बीज द्वारा फैलता है व कुछ क्षेत्रों में ये रोग सफेद मक्खी द्वारा भी फैलता है। इसके लक्षण सामान्यत: फसल बोने के 3 से 4 सप्ताह में दिखने लगते हैं। इस रोग में दूसरी पत्ती बड़ी होने लगती है, पत्तियों में झुर्रियां व मरोड़पन आने लगता है। संक्रमित पौधों को खेत में दूर से ही देखकर ही पहचाना जा सकता है। इस रोग के कारण पौधे का विकास रुक जाता है, जिससे पौधे में नाम मात्र की फलियां आती हैं । यह रोग पौधे की किसी भी अवस्था में अपनी चपेट में ले सकता है।

लक्षण: सबसे शुरुआती लक्षण कुछ पाश्र्व शिराओं और किनारे के पास इसकी शाखाओं के आसपास क्लोरोसिस के रूप में सबसे नई पत्तियों पर दिखाई देते हैं। पत्तियों के किनारे नीचे की ओर मुड़े हुए दिखाई देते हैं। कुछ पत्तियाँ मुड़ी हुई दिखाई देती हैं। बुवाई के 5 सप्ताह के भीतर लक्षण दिखाने वाले पौधे निरपवाद रूप से बौने रह जाते हैं और इनमें से अधिकांश एक या दो सप्ताह के भीतर शीर्ष परिगलन के कारण मर जाते हैं। विकास के बाद के चरणों में संक्रमित पौधे पत्तियों के गंभीर मुडऩे और मुडऩे को नहीं दिखाते हैं, लेकिन पत्ती के पटल पर कहीं भी विशिष्ट शिरापरक हरित हीनता दिखाते हैं।

प्रबंधन: थ्रिप्स को नियंत्रित करने के उद्देश्य से प्रबंधन रणनीतियों को लाने से मूंग की फसल में लीफ कर्ल रोग का प्रकोप कम कर देता है।  कीटनाशक इमिडाक्लोप्रिड ञ्च 5 ग्राम/किलोग्राम बीज के साथ बीज उपचार करें। बुवाई के 15 दिनों के बाद फसल पर इमिडाक्लोप्रिड ञ्च 0.5 मिली/ली. का छिडक़ाव करें।

स्त्रोत :कृषकजगत  

 

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