हमारे व्हाट्सएप ग्रुप से जुड़ें

लहसुन फसल पर लगने वाली बिमारियॉ व रोकथाम

 

बिमारियॉ व रोकथाम

 

लहसुन का आर्द्र गलन :-

यह रोग स्केलेरोषियम राल्फसी नामक कवक से होता हैं जो कि पौधषाला में बीज अंकुरण के बाद पौधों की बढ़वार के समय प्रभावित करता हैं जिससे पौधो पीले पड़ने लगते हैं पौधों का जमीन से लगने वाला भाग सड़ने लगता हैं और फिर पौधें सूखने लगते है।

मुरझाये हुए पौधों के जमीन वाला भाग कवक के सफेद तन्तु विकसित होते हैं जिन पर सफेद रंग छोटी दानेदार रचना होती हैं।

पौधषाला में यदि जल निकास अच्छा न हो, तो इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।

 

रोकथाम :-

  • बुवाई से पूर्व बीज का केप्टान (23 ग्राम प्रति किग्रा बीज) से उपचारित करना चाहिए।
  • ट्राईकोडर्मा विरिडीस प्रति किलो 4 ग्राम की दर से बीजों को उपचारित करना चाहिए।
  • पौधेषाला कभी भी उठी हुई क्यारियों पर तैयार करना चाहिए। इससे जलनिकास अच्छा होता है।

 

लहसुन का बैंगनी धब्बा :-

यह रोग अल्टरनेरिया पोरी नामक कवक से होता हैं। यह रोग पौधों की किसी भी अवस्था में आ सकता है।

इस रोग में पतियो या पुष्प (फूल) गुच्छा की डणिडयों पर आरंभ में छोटे, दबे हुए, बैंगनी केन्द्र वाले लंबवत सफेद धब्बे बनते है।

यह धब्बे धीरे-धीरे बढने लगते हैं तथा आरंभ में धब्बे बैंगनी होते है। जो बाद में काले हो जाते है।

ऐसे अनेक धब्बे बडे होकर आपस में मिल जाते है और पतियां पीली पड़कर सूख जती हैं। खरीफ मौसम में इस रोग का अधिक प्रकोप होता है।

 

रोकथाम :-

  • बुवाई से पूर्व बीजों को 23 ग्राम डाइथायोकार्बामेट प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
  • नत्रजन युक्त उर्वरकों का प्रमाण से अधिक और देर से प्रयोग नही करना चाहिए।
  • मेन्कोजेब 30 ग्राम या कार्बान्डाजिम 20 ग्राम या क्लोरोथलोनिल 20 गा्रम नामक कवकनाषकों को 10 लीटर पानी में घोल कर 1215 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए।

 

लहसुन का श्याम वर्ण (काला धब्बा) :-

यह रोग कोलेटोट्रायकम ग्लेओस्पोराइडम कवक से होता है। रोग के प्रारम्भ में पत्तिायो के बाहरी भाग पर जमीन से लगने वाले भाग में राख जैसे चकते बनते है।

जो बाद में बढ़ जाते है तथा सम्पूर्ण पतियों पर काले रंग के उभार दिखने लगते हैं। ये उभार गोलाकर होते है।

इससे प्रभावित पत्तिायॉ मुरझाकर मुड़ जाती हैं तथा अंत में सुख जाती हैं। लगातार एक के बाद एक पतियॉ काली हो जाती हैं और पौधें मर जाते हैं।

खरीफ के मौसम में नमी वाले वातावरण में इस रोग की शीघ्र वृध्दि होती है।

 

रोकथाम :-

  • रोपाई से पूर्व पौधों के जड़ों को कार्बान्डाजिम 2 अनुपात में डुबाना चाहिए।
  • पौधषाला में बीज पतला बोना चाहिए।
  • मेन्कोजेब (डाईथेन एम-45) 30 ग्राम या कार्बेन्डाजिम 20 ग्राम को 10 लीटर पानी में घोल कर 1215 दिन के अन्तराल पर अदल-बदल कर छिडकाव करना चाहिए।

 

लहसुन का आधार विगजल :-

यह रोग फ्युजेरियम ऑक्सिस्पोरियम नामक कवक से होता हैैं। अधिक तापमान तथा अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्राें में इस रोग का अधिक प्रकोप होता है।

पौधो की कम वृध्दि तथा पंत्तिायों का पिला पड़ना, इस रोग के प्रथम लक्षण है।

रोपाई किये किए हुए पौधो की जड़ें सडने लगती है तथा पौधें आसानी से उखड़ जाते हैं रोगाग्रस्त पौधाें की जड़ें कालापन लिए हुए भूरी होने लगती है तथा पतली हो जाती है। रोग के अधिक प्रकोप में कन्द जड़ के पास सडने लगते हैं तथा मर जाते हैं।

 

रोकथाम :-

  • इस रोग के कारक जमीन में रहते है। इस कारण उचित फसल चक्र अपनाना आवष्यक हैं।
  • डायथायोकार्बामेट (2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर ) से बीज को उपचारित कर बोना चाहिए।
  • गोबर की खाद के साथ खेत में ट्रायकोडर्मा विहरीडीस 5 किलो प्रति हैक्टर की दर से मिलाना चाहिए।

 

लहसुन फसल पर लगने वाली कीट

लहसुन का थ्रिप्स :-

थ्रिप्स लहसुन का प्रमुख नुकसानदायक कीट हैं।

यह कीट आकार में बहुत छोटे होते हैं अभ्रक तथा प्रौढ कीट नई पतियों का रस चूसते हैं कीड़ों के रस चुसने से पतियो पर असंख्य सफेद रंग के निषान दिखते है। अधिक प्रकोप से पतियॉ मुड़कर झुक जाती है।

फसल की किसी भी अवस्था में कीडो का प्रकोप हो सकता हैं रोपाई के तुरन्त बाद इनके प्रकोप से पतियॉ मुड़ने के कारण कन्दों का पोषण नहीं होता है थ्रिप्स के द्वारा किये गये सूक्ष्म जीवों मे बैंगनी, काला सा भूरा धब्बा तथा अन्य कवको के रोगाणु पौधों मे ंप्रवेष कर जाते हैं तथा पौधो में रोग को प्रकोप भी बढता हुआ पाया गया है।

 

रोकथाम :-

  • लहसुन की रोपाई से पूर्व खेत में फोरेट 10 जी 4 किग्रा. प्रति एकड़ या कार्बाफ्युरॉन 3 जी 14 किग्रा. प्रति एकड़ की दर से जमीन में मिलाना चाहिए।
  • प्रत्येक 1215 दिन के अन्तराल पर डायमेथोयट (03) 15 मिली. मोनोक्रोटोफॉस (0.07) 20 मिली. या साइपरमीथ्रिन (10 ईसी) 5 मिली. या प्रोफेनोफॉस 10 मिली आदि दवाओं में से कोई एक दवा प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर अदल-बदल कर छिड़काव करना चाहिए। इस प्रकार कम से कम 45 छिड़काव की आवष्यकता होती है।

 

लहसुन का कटवा :-

इस कीड़े की सूडियॉ (इल्ली) पौधों को नुकसान पहुंचाते है। ये पौधों के जमीन के अन्दर वाले भागो को कतरती हैं।

जिससे पौधे सुखने लगते है तथा उखाड़ने पर आसानी से उखड जाते हैं। ककरिली, रेतीली या हल्की मिट्टियों में इस कीडे क़ा अधिक प्रकोप होता है।

 

रोकथाम :-

 पिछली फसल के अवषेषों को नष्ट कर देना चाहिए।

रोपाई से पूर्व फोरेट 10 जी 4 किग्रा. प्रति एकड़ या कार्बोफ्यूरॉन 3 जी 14 किग्रा. प्रति एकड़ की दर से खेत में डालना चाहिए। उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।

 

लहसुन में दीमक :-

कंकरीली, रेतीली या हल्की जमीन में दीमक से अधिक नुकसान होता है इसके अलावा फसल के अवषेष ठीक से सड़ें न हो या कच्ची गोबर की खाद या कम्पोस्ट डाला हो तो भी इससे नुकसान अधिक होता हैं।

कई बारे खेत के बांध पर दीमक की बांबी होती है इस कारण प्याज फसल को भी नुकसान होता है। यह पौधों की जड़ तथा कन्दों को कुतरते है जिससे पौधा सूख जाता हैं।

 

रोकथाम :- 

इसका प्रकोप के लिए प्रति एकड़ 4050 किलो हेप्टाक्लोर पाउडर जमीन में अच्छी तरह मिला दें व बाद में बांध पर दीमक की बांबीयों को नष्ट कर दें।

 

यह भी पढ़े : गेहूं की इन 5 उन्नत किस्मों की करिए खेती

 

यह भी पढ़े : गेहूं और सरसों की अच्छी पैदावार के लिए वैज्ञानिक सलाह

 

यह भी पढ़े : किसानो को सलाह, प्रति हैक्टेयर 100 किलोग्राम गेहूं का उपयोग बुआई में करें

 

शेयर करे