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लाल बहादुर शास्त्री ने किसानों को क्यों दिया था न्यूनतम समर्थन मूल्य का तोहफा?

 

न्यूनतम समर्थन मूल्य

 

भारत को खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनाने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत लाल बहादुर शास्त्री के वक्त में ही हो चुकी थी.

जानिए किसानों के लिए उन्होंने क्या-क्या किया?

 

जून 1964 में जब लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री के तौर पर देश संभाला उस वक्त भारत गेहूं के संकट और अकाल की चुनौती से जूझ रहा था.

इस संकट से उबारने के लिए शास्त्री ने जय जवान-जय किसान का नारा दिया तो दूसरी ओर इसका पक्का हल खोजने के लिए हरित क्रांति जैसी योजना पर काम शुरू करवाया.

किसानों में उत्साह भरने के लिए उन्होंने खुद हल चलाया. किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की सुविधा लाल शास्त्री की वजह से ही मिली.

अब जिसकी कानूनी गारंटी की मांग को लेकर किसान लड़ाई लड़ रहे हैं.

 

आज उनकी जयंती पर किसानों के लिए किए गए उनके कुछ कार्यों पर रौशनी डालने की कोशिश होगी.

दरअसल, किसानों को उनकी मेहनत और लागत के हिसाब से फसलों का उचित दाम न मिलने की समस्या काफी पुरानी है.

आजादी के बाद देखने में आया कि किसानों को उनकी फसलों की अच्छी कीमत नहीं मिल पा रही है.

जब अनाज कम पैदा होता तब कीमत बढ़ जाती थी और जब अधिक होता तो दाम कम हो जाता था.

 

पहली बार कब तय हुई एमएसपी?

कृषि विशेषज्ञ बिनोद आनंद के मुताबिक इस समस्या के समाधान के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1964 में अपने सचिव एलके झा के नेतृत्व में खाद्य और कृषि मंत्रालय की खाद्य-अनाज मूल्य कमेटी का गठन करवाया.

शास्त्री का मानना था कि किसानों को उनकी उपज के बदले इतना तो मिलना ही चाहिए कि उन्हें नुकसान न हो.

इस कमेटी ने 24 दिसंबर 1964 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.

 

जिस दिन रिपोर्ट मिली उसी दिन मुहर लगी

शास्त्री किसानों के हितैषी थे. इसलिए बिना देर किए उन्होंने उसी दिन इस पर मुहर लगा दी.

हालांकि कितनी फसलों को इसके दायरे में लाया जाएगा, यह तय नहीं हुआ था.

वर्ष 1966-67 में पहली बार गेहूं और धान न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया गया.

कीमत तय करने के लिए केंद्र सरकार ने कृषि मूल्य आयोग का गठन किया.

इसी का नाम बदलकर सरकार ने 1985 में कृषि लागत और मूल्य आयोग कर दिया.

एलके झा की कमेटी की ही सिफारिश पर वर्ष 1965 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) का गठन भी किया गया, जो फसलों की खरीद करता है.

 

हरित क्रांति की कहानी

यूनाइटेड नेशन के खाद्य और कृषि संगठन (FAO) में चीफ टेक्निकल एडवाइजर के पद पर काम कर चुके प्रो. रामचेत चौधरी कहते हैं, “असल में तो भारत को खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनाने के लिए हरित क्रांति की शुरुआत 1965 में ही हो गई थी.

शास्त्री जी की कोशिश से भारत ने मैक्सिको से Lerma Rojo 64-A (लर्मा रोहो) और कुछ अन्य किस्मों के गेहूं के 18,000 टन बीज का आयात किया.

इसका परिणाम यह हुआ कि गेहूं का उत्पादन 1965 में जो सिर्फ 12 मिलियन टन था वो 1968 में बढ़कर 17 मिलियन टन तक हो गया. उस वक्त देश के कृषि मंत्री थे सी. सुब्रमण्यम.

 

प्रो. चौधरी के मुताबिक, इससे पहले अनाज के अकाल को देखते हुए शास्त्री जी ने लोगों से अपने-अपने लॉन में गेंहूं, धान और सब्जियां उगाने की सलाह दी थी.

उनके कहने पर लोगों ने उपवास रखा. शास्त्री जी ने कृषि क्षेत्र में कई सुधार लागू किए, सिंचाई के लिए नहरें बनवाईं, किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया.

किसानों के लिए वैसी सोच वाले नेता देश को न जाने कभी मिलेंगे या नहीं. वो वाकई छोटे कद के बड़े आदमी थे.

 

एक दिन के उपवास की कहानी

लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री टीवी-9 डिजिटल से बातचीत में इसके बारे में जानकारी दी.

उन्होंने बताया कि 1965 में जब देश भयंकर अकाल की चपेट में था तभी पाकिस्तान के साथ युद्ध भी छिड़ गया था.

ऐसे में अन्न की बचत करने के लिए तत्कालीन पीएम शास्त्री जी ने सप्ताह में एक दिन उपवास करने की अपील की.

ताकि हमारी विदेशी निर्भरता कम हो.

 

अमेरिका ने उस समय शर्तो के साथ अनाज की आपूर्ति करने की बात कही थी.

ऐसे में शास्त्री जी का मानना था कि यदि कृषि प्रधान देश में अमेरिका से अनाज लिया गया तो देश के स्वामिमान को ठेस पहुंचेगी.

सुनील शास्त्री बताते हैं कि उस वक्त वो सेना में चीन बॉर्डर पर तैनात थे. जब छुट्टियों में घर आए तो पता चला कि अब सोमवार को खाना नहीं बनता.

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