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लहसुन व प्याज का घातक रोग पर्पल ब्लाच

 

लहसुन और प्याज एक कुल की प्रजाति का पौधा माना जाता है, तथा इसका वैज्ञानिक नाम एलियम सैटिवुम एल है.  

 

प्याज एवं लहसुन भारत में उगाई जाने वाले महत्वपूर्ण फसलें हैं.  लहसुन और प्याज को मसलों में मुख्य तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.  औषधीय और स्वास्थ्यवर्ध्दक गुणों के कारण भोजन में इसका प्रयोग किया जाता है.  

भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में लहसुन और प्याज का प्रयोग व्यंजनों को अलग स्वाद देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.  इन्हें सलाद के रूप में सब्जी, आचार और चटनी बनाते समय प्रयोग में लाते हैं.

 

प्याज एवं लहसुन की खेती रबी मौसम में भी की जाती है लेकिन इनको खरीफ वर्षा ऋतु मौसम में उगाया जाता है.

 

लहसुन को औषधीय रूप में जैसे पेट, कान तथा आंख की बीमारियों के उपचार के लिए प्रयोग में लाया जाता है.  लहसुन में सल्फ़र काफी मात्रा में पाया जाता है.  होम्योपैथी साइंस के हिसाब से सल्फ़र त्वचा के रोगों और खून पतला रखने में मदद करता है.  

लहसुन में अनेक प्रकार के रोग होते है, जिनका समय पर प्रबंधन नहीं करने पर काफी नुकसान होता है.  लहसुन की गाठो का आकार छोटा होने के कारण पैदावार में कमी तथा छोटी गाठो का बाजार में भाव भी कम मिलता है.

इस प्रकार से किसानों को दोनों तरफ़ से नुकसान होता है.  अंत: रोगों के लक्षणों की समय पर पहचान कर इनका नियन्त्रण करने से फसल को होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है.

 

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लहसुन और प्याज में लगने वाले मुख्य रोग व उनकी रोकथाम के उपाय निम्नलिखित है:-

पर्पल ब्लाच (Purple blotch):-

यह रोग एक फफुंद अल्टरनेरियां के कारण होता है.  यह बीमारी प्याज एवं लहसुन में उगने वाले सभी क्षेत्रों में पाई जाती है.  यह रोग पत्तियों पर या बीज के डंठल पर छोटे-छोटे जलसिक्त धब्बों के रूप में शुरू होता है.  

बाद में इनका रंग भूरा हो जाता है, और बड़ा आकार ले लेते हैं तथा इनका रंग बैंगनी हो जाता है.  इन धब्बों के चारों तरफ के घेरा बन जाता है.  

नम मौसम में धब्बों की सतह काली दिखाई देती है जो कि फफूंद के बीजाणु के कारण होती है. धब्बे जब बड़े हो जाते हैं तो पत्तियां पीली पडकर सूख जाती है.  जब बीज के डंठल इस रोग से प्रभावित होते हैं तो बीज का विकास नहीं होता है.

अगर बीज बन भी जाते हैं तो सिकुड़ा हुआ होता है. इस बीमारी का प्रभाव कंद वाली फसल पर भी होता है.

रोकथाम

  • अच्छी रोग प्रतिरोधक प्रजाति के बीज का प्रयोग करना चाहिए.
  • जिस खेत में बीज की फसल पर यह रोग लगता हो वहां पर अन्य फसलें उगाने चाहिए.
  • 2 या 3 साल का फसल चक्र अपनाना चाहिए प्याज से संबंधित चक्र शामिल नहीं करना चाहिए.
  • फसल पर लक्षण दिखाई देते ही इंडोफिल एम-45 या कॉपर ऑक्सिक्लोराइड 400-500 ग्राम प्रति एकड़ के हिसाब से 200-250 लीटर पानी में घोलकर किसी चिपकाने पदार्थ जैसे सैल्वेट- 99, 10 ग्राम /100 लीटर घोल के साथ मिलाकर 10 या 15 दिन के अंदर पर छिड़काव करें.

 

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स्त्रोत : कृषि जागरण

 

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