स्टॉक नहीं होने से प्रभावित हो रही खेती, किसान परेशान
खाद की कमी कोई नहीं बात नहीं, लेकिन वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी से आयात में कमी आई है. यहीं कारण है कि स्थिति बिगड़ गई है.
भारत में आयातित डीएपी की कीमत इस बार 675 से 680 डॉलर प्रति टन तक पहुंच गई है, जबकि पिछले साल इसी वक्त भाव 370 डॉलर थे.
हर साल खरीफ और रबी सीजन से पहले खाद की कमी की समस्या एक आम बात बन गई है.
खाद के लिए किसानों की लंबी लाइनें हमें अक्सर ही देखने को मिलती हैं. हर साल होने वाली इस समस्या का समाधान अभी तक नहीं हो पाया है.
इस बार भी स्थिति अलग नहीं है. मध्य प्रदेश और राजस्थान सहित कई अन्य राज्यों के किसान खाद के लिए भटक रहे हैं.
इस बार खाद की वैश्विक कीमतों में इजाफा से स्थिति और खराब हो गई है.
पर्याप्त स्टॉक नहीं होने से रबी फसलों, खासकर सरसों की बुवाई प्रभावित हो रही है.
नवंबर के पहले सप्ताह से गेहूं की बुवाई भी रफ्तार पकड़ेगी, तब खाद की कमी की समस्या विकट हो सकती है.
इस समय आलू और सरसों के लिए किसान डीएपी, यूरिया और पोटाश नहीं मिलने से दिक्कतों में हैं.
वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी से स्थिति हुई खराब
खाद की कमी कोई नहीं बात नहीं, लेकिन वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी से आयात में कमी आई है. यहीं कारण है कि स्थिति बिगड़ गई है.
इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, भारत में आयातित डीएपी की कीमत इस बार 675 से 680 डॉलर प्रति टन तक पहुंच गई है, जबकि पिछले साल इसी वक्त भाव 370 डॉलर थे.
इसी तरह पोटाश एक साल पहले 230 डॉलर प्रति टन पर आयात किया गया था, जबकि आज यह कम से कम 500 डॉलर में मिल रहा है.
डीएपी के बाद सबसे जरूरी खाद यूरिया की कीमत भी 280 से 660 डॉलर तक पहुंच गई है.
फॉस्फोरस की बात करें तो यह 689 से 1160 डॉलर पर पहुंच गया है. रॉक फॉस्फेट और सल्फर का भी यही हाल है.
सब्सिडी पर देर से लिया गया निर्णय
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 12 अक्टूबर को डीएपी पर सब्सिडी 24,231 रुपए से बढ़ाकर 33,000 रुपये प्रति टन करने की मंजूरी दी थी.
यह एनपीके खाद पर दी गई सब्सिडी से अलग थी. खाद कंपनियां आयात बढ़ा सकें और खुदरा मूल्य में बढ़ोतरी न हो, इसी को ध्यान में रखकर सरकार ने यह फैसला लिया था.
सरकार के इस फैसले पर उद्योग विशेषज्ञों का कहना है कि निश्चित रूप से इससे आयात में बढ़ोतरी होगी.
उम्मीद है कि अक्टूबर के अंत और नवंबर के शुरुआत तक माल पहुंचने लगेगा.
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार ने काफी देर से फैसला लिया है.
अगर यह निर्णय पहले ले लिया गया होता, तो स्थिति उलट होती और किसान परेशानी से बच जाते.
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