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मेंथा (पुदीना) की उन्नत खेती

 

पुदीना की खेती

 

मेंथा का तेल व्यवसायिक रूप से महत्वपूर्ण योगदान रखता है। इसका व्यापक रूप से प्रयोग दवा उद्योग में किया जाता है।

प्राचीन काल से ही मेंथा (पुदीना) को किचन गार्डनिंग में प्रयोग किया जाता था। प्राथमिक रूप से मेंथा के तेल में मेंथाल पाया जाता है।

मेंथा के तेल का प्रयोग ज्यादातर टूथपेस्ट के स्वाद के रूप में , नहाने के साबुन में, चबाने वाली चिंगम तथा अन्य बहुत से खाद्य पदार्थों में इसका प्रयोग किया जाता है।

 

ऐसा माना जाता है, कि मेंथा का जन्म स्थान भूमध्यसागरीय क्षेत्र के आसपास से हुआ है।

और वहां से यहां विभिन्न देशों में समय-समय पर पहुंचाया जाता रहा है।

सामान्यतः जापानी मेथी की खेती बड़े पैमाने पर ब्राजील, जापान, अर्जेंटीना, थाईलैंड, चीन व भारत में की जाती है।

 

भारत में मेंथा की खेती उत्तरी मैदानों में की जाती है। इसमें मुख्यत: उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार आदि राज्यों में की जाती है।

उत्तर प्रदेश में मेंथा की खेती मुख्यतः पीलीभीत, बाराबंकी, फैजाबाद, लखनऊ आदि, जिलों में बड़े पैमाने पर की जाती है।

मेंथा की खेती इन जिलों में प्रमुख फसल के रूप में अपना स्थान बना लिया है।

 

जलवायु

मेंथा की फसल के समुचित बढ़वार  के लिए आवश्यकता क्रम 20 से 300C होना चाहिए। जबकि कटाई के समय तेज धूप होनी चाहिए।

क्योंकि 30 से 400C तापक्रम पर इसमें तेल की अच्छी मात्रा पैदा होती है।

 

भूमि की तैयारी

मेंथा की खेती आलू, मटर तथा सरसों की पेडीसे खाली हुए खेतों में अधिकतर की जाती है।

मेंथा की खेती के लिए अच्छी जल निकास वाली दोमट तथा मटियार दोमट मृदा अच्छी मानी जाती है। जिसका पीएच मान 6 से 7 होना चाहिए।

मेंथा की खेती के लिए एक जुताई मिट्टी पलट हल से तथा दो या तीन जुदाई कल्टीवेटर से करके भूमि को समतल रोपाई योग्य बना लेते चाहिए।

 

मेंथा की उन्नत प्रजातियां

मेंथा स्पाईकटा (देसी पुदीना), हिमालय गोमती, कोसी, सक्षम एवं कुशल आज मेंथा की उन्नत किस्में हैं।

इन किस्मों की जड़े (सकर्स) केंद्रीय औषधि एवं सुगंध पौध संस्थान लखनऊ से प्राप्त की जा सकती है।

 

मेंथा की रोपाई का समय

सामान्यतः मेंथा की जड़ों की बुवाई का उचित समय 15 जनवरी से लेकर 15फरवरी तक माना जाता है।

परंतु कुछ विषम परिस्थितियों में इसकी बुवाई मार्च तक  की जा सकती है।

देर से बुवाई करने पर तेल की मात्रा में कमी हो जाती है, व उपज भी कम मिलती है।

 

डे (सकार्स) का शोधन

रोपाई से पूर्व जड़ों को 2 ग्राम कार्बेंडाजिम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर 5 मिनट तक डुबोकर सुजित करना चाहिए।

 

मेंथा की बुवाई विधि

एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की बुवाई के लिए सामान्यतः 4 से 5 कुंटल जड़ों की आवश्यकता होती है।

जड़ों को 4 से 6 सेंटीमीटर लंबे टुकड़े (कुट्टी मशीन की सहायता से) काटकर 5 से 6 सेंटीमीटर गहरे कूड में रोपाई कर देनी चाहिए रोपाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।

 

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

मृदा में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए।

यदि संभव हो तो 15 से 20 टन जैविक खाद इसके अलावा 120 से 140 किग्रा नत्रजन, 50 से 60 किग्रा फास्फोरस , 40 से 50 ग्राम पोटाश तथा 30 से 25 किग्रा सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।

 

फास्फोरस, पोटाश तथा सल्फर की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बुवाई के समय देनी चाहिए।

शेष नत्रजन को दो बार रोपाई के 40 से 45 दिन बाद तथा 70 से 80 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए।

 

सिंचाई

मेंथा में पहली सिंचाई बुवाई के तुरंत बाद करना चाहिए। मेंथा सूखा सहन नहीं कर पाती है।

अतः फरवरी-मार्च में 10 से 15 दिन के अंतराल पर तथा मार्च से जून तक 6 से 8 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए।

 

खरपतवार नियंत्रण

मेंथा में दो से तीन निराई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। पहली निराई रोपाई के35 से 40 दिन बाद तथा दूसरी निराई 75 से 80 दिन बाद करनी चाहिए।

 

यदि निराई संभव न हो तो पेंदीमैथलीन 30 ई सी के 3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर को 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई (रोपाई) के पश्चात खेत में ओट आने पर यथाशीघ्र छिड़काव कर देना चाहिए।

 

कीट नियंत्रण

दीमक –

यह मेंथा की जड़ों को क्षति पहुंचाती है। फल स्वरूप जमाव पर बुरा असर डालती है। अधिक प्रकोप से पौधे सूख जाते हैं।

इसके बचाव के लिए क्लोरपीरिफॉस 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के पान के साथ प्रयोग करनाचाहिए।

 

बालदारसूडी –

यह पत्तियों की निचली सतह पर रहती है। और पत्तियों को खाती है। इस कीट के प्रकोप से बचने के लिए क्लोरो वास 500 मिलीलीटर को 700 से 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।

 

पत्ती लपेटाकीट –

इस कीट की सूडिया पत्तियों को लपेटते हुए खाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफॉस 30 ई सी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 से 700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करते है।

 

रोग नियंत्रण

जड़ गलन –

इस रोग में जड़े काली पड़ जाती है। जड़ों पर गुलाबी रंग के धब्बे दिखाई देते है। रोपाई से पूर्व जड़ों को 0.1% कार्बेंडाजिन से शोधित कर इस रोग से निदान पा सकते है।

 

पारणदाग –

पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते है। इससे पत्तियां पीली पड़कर गिर जाती है।

इस रोग के निदान के लिए मैनकोज़ेब 75 डब्लू पी की 2 किग्रा मात्रा 700 से 800 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।

 

मेंथा की फसल की कटाई

मेंथा की फसल की कटाई प्राय: दो बार की जाती है। पहली कटाई 90 से 100 दिन पर करते है।

कटाई में देरी करने पर पत्तियां पीली पढ़करगिर जाती है। जिससे तेल कम निकलता है। कटाई के 8 दिन पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए।

 

शाम को कटाई करके रात में फसल को ऐसे ही छोड़ देना चाहिए, ऐसा करने से 0.5% तेल की मात्रा में बढ़ोतरी होती है।

मेंथा की कटाई भूमि से 4 से 5 सेंटीमीटर ऊंचाई से करनी चाहिए, ताकि दूसरी कटिंग ले सकें।

दूसरी कटाई 70 से 80 दिन पर कर सकते है। देर से बोई गई मेंथा की फसल की एक ही कटाई ले सकते है।

 

मेंथा की उपज

मेंथा की दो कटाई से लगभग 30 से 40 टन प्रति हेक्टेयर शाक की प्राप्त होती है।

इसके अलावा लगभग 150 से 175 किलोग्राम तेल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।

source : krishiseva

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