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विदेशियों को लुभा रही मालवा की लहसुन

 

मालवा की लहसुन

 

मालवा के बारे में कहा जाता है कि मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर।

कृषि उत्पादों के लिए मालवा की भूमि पूरे देश में प्रसिद्ध है। यहां पैदा होने वाली हर फसल स्वाद और गुणवत्ता के कारण सबको भाती है।

पूरे देश में मालवा के गेहूं सर्वाधिक खाए जाते हैं।

बीते कुछ वर्षों से अन्य फसलें भी मालवा में होने लगी हैं जिनका स्वाद देश ही नहीं, विदेशों में भी लोगों को लुभा रहा है।

मसाले के रूप में प्रयोग होने वाली लहसुन उन्हीं में से एक है। जो पहले बहुत ही सीमित मात्रा में बोई जाती थी, लेकिन अब अपने स्वाद के कारण मालवा की लहसुन की मांग बढ़ने से इसका रकबा भी बढ़ रहा है।

पिछले साल जहां 16 हजार बीघा में लहसुन बोई गई थी, वहीं इस बार 26 हजार बीघा में इसकी बोवनी हुई है तथा अभी भी चल रही है।

 

मालवांचल में सर्वाधिक लहसुन मंदसौर और नीमच जिले में बोई जाती है। रतलाम के भी कुछ हिस्सों में किसानों का रुझान इसके प्रति हुआ है।

देखते ही देखते दो दशक में इसकी खेती धार जिला पार कर निमाड़ अचंल तक जा पहुंची है।

संपन्ना और बड़े किसान पहले प्रति वर्ष एक से पांच बीघा तक इसकी खेती करते थे, लेकिन अब बदनावर तहसील के ही काछीबड़ौदा, कारोदा, मुलथान, अमोदिया, कोद, बिड़वाल, कड़ौदकलां आदि गांवों में 10 से 50 बीघा तक के क्षेत्रफल में किसान इसे बोने लगे हैं।

 

ऐसे होती है खेती

लहसुन की एक बीघा खेती पर औसतन 30 से 40 हजार रुपये का खर्च आता है। यह 120 से 130 दिन में पककर तैयार होती है।

चार से पांच बार कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है। इसमें मुख्यतः उगसुक व रससूचक कीट का प्रकोप होता है।

आज से कुछ वर्ष पूर्व तक इसकी चौपाई मजदूरों से करवाई जाती थी, जिसमें बीज कम लगता था।

सीड ड्रील से बोवनी में 50 किलो प्रति बीघा तक बीज लगता था, लेकिन अब किसानों का रुझान बढ़ने से कृषि यंत्र बनाने वाले लघु उद्योग व्यवसायियों ने चम्मच वाली सीड ड्रील बना दी है। इससे लागत, समय व बीज तीनों की बचत होती है।

हालांकि फसल पकने के बाद मजदूरों को भरपूर काम मिलता है। एक बीघा लहसुन की खोदाई, कटाई और सफाई पांच हजार रुपये में पड़ती है।

खेत खाली होने के बाद मजदूर कुदाल और खुरपी से बची हुई लहसुन खेतों से बीन लाते हैं, जिसका उन्हें उचित मेहनताना मिलता है।

 

वायरस समस्या से डालर चने का रकबा घटा

उन्नात किसान और कृषि विशेषज्ञ प्रेमसिंह देवड़ा के अनुसार मालवांचल में डालर चने में वायरस की समस्या होने के बाद उसका रकबा घटा और लहसुन की ओर किसानों का रुझान अधिक हुआ है।

उन्होंने बताया कि मालवा की मिट्टी काली और दोमट होती है।

इस कारण लहसुन की गाठियां भी आकार में अपेक्षाकृत बड़ी होती हैं। इससे उत्पादन में भी अपेक्षाकृत वृद्धि दर्ज होती है।

यदि तीन हजार रुपये क्विंटल से ऊपर भाव मिलते हैं, तो भी किसान घाटे में नहीं जाता है।

जो किसान प्रतिवर्ष लहसुन बोते रहते हैं, उन्हें तीन से चार वर्ष में एक बार अच्छा खासा मुनाफा हो जाता है।

वैसे भी अब मालवा के लहसुन की मांग दक्षित भारत, गुजरात, महाराष्ट्र समेत थाईलैंड, बांग्लादेश और खाड़ी देशों में होने लगी है।

मालवांचल में लहसुन की सबसे उन्नात मंडी पिपलीयामंडी मंदसौर मानी जाती है। इसके अलावा नीमच, मंदसौर, जावरा, रतलाम में भी लहसुन की बिक्री बहुतायत में होती है।

अब सात साल से बदनावर सब्जी मंडी में लहसुन अच्छी मात्रा में आने लगी है। बाहर के बड़े व्यापारी और आढ़तिए बदनावर क्षेत्र की लहसुन को प्राथमिकता देने लगे हैं।

यहां से भी सीधे दिल्ली, आंधप्रदेश, राजस्थान, पुणे, नासिक, मुंबई, हैदराबाद, अहमदाबाद, बड़ौदा आदि शहरों में बिक्री के लिए ले जाई जा रही है।

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