प्रमुख रोग एवं प्रबधंन
चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग उखेड़ा, रतुआ, एस्कोकाइटा ब्लाईट, तना गलन, सूखा जड़ गलन, आद्र जड़ गलन, ग्रे मोल्ड, अल्टरनेरिया ब्लाईट, एन्थ्रेक्नोज, स्टेमफाइलियम पत्ता धब्बा रोग, फोमा पत्ता ब्लाईट व स्टंट रोग हैं।
इस लेख में इन सभी रोगों के नैदानिक लक्षण व नियंत्रण का वर्णन किया गया है।
चना सबसे अधिक खेती की जाने वाली दाल की फसलों में तीसरे स्थान पर है। यह एक वार्षिक फसल है और प्रोटीन का समृद्ध स्त्रोत है।
इसका वैज्ञानिक नाम सिसर एरीटिनम है। भारत चने के उत्पादन में प्रथम स्थान पर है तथा कुल उत्पादन का 65 प्रतिशत (9 मिलियन टन) भारत में उत्पादित किया जाता है।
चने का सेवन करने से दिल, कैंसर व मधुमेह का जोखिम कम हो जाता है।
इस फसल को बहुत से रोग प्रभावित करते हैं जिससे उत्पाद की मात्रा व गुणवत्ता भी घट जाती है। रोगों का उचित प्रबधंन निम्न प्रकार करें।
उखेड़ा
रोगाणु: फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम
नैदानिक लक्षण
उखेड़ा रोग फफूंद के कारण होता है जोकि मृदा तथा बीज जनित है।
आमतौर पर यह रोग अंकुरित पौधों व फूल खिलने की अवस्था में पौधों को प्रभावित करता है।
बिजाई के 3 हफ्तों बाद इसके लक्षण अंकुरित पौधों पर देखे जा सकते है। पत्ते पीले पड़ जाते है और सूख जाते हैं। पौधों के मुरझाने के साथ-साथ पत्ते भी गिर जाते हैं।
परिपक्व पौधों में पहले ऊपर के पत्ते गिर जाते है व जल्दी ही पूरे पौधे के पत्ते गिर जाते हैं।
तने व जड़ के हिस्सों में भूरा रंग का भाग देखा जा सकता है जो इस रोग के सक्रंमण को दर्शाता है।
संक्रमण के प्रारंभिक चरण में पौधों में बाहरी सड़न, सूखापन और बदरंग जड़ों के लक्षण नही दिखाई देते।
अंदर के हिस्से मंे भूरा व काला रंग का हिस्सा जब पौधे को चीर कर देखते हैं तो दिखाई पड़ता है।
रोग प्रबधंन
- रोगप्रतिरोधककिस्में जैसे- एच.सी. 1, एच.सी. 3, एच.सी. 5, एच.के. 1, एच.के. 2, सी.214, उदय, अवरोधी, बी.जी. 244, पूसा- 362, जे जी- 315, फूले जी- 5, डब्ल्यू आर – 315, आदि उगायें।
- बीजोपचार के लिए कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या कार्बेंडाजिम 1 ग्राम $ थीरम 1 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से प्रयोग करें।
- 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी प्रति किलोग्राम या स्यूडोमोनास फलोरेसेंस 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें।
- बीजोपचार के लिए 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी $ विटावैक्स 1 ग्राम का 5 मिली लीटर पानी में लेप बनाकर प्रति किलोगाम बीज की दर से प्रयोग करें।
- खेत में अधिक मात्रा में हरी व जैविक खाद डालें।
- जिन खेतों में उखेडा की ज्यादा समस्या है वहां चने की बिजाई 3 से 4 साल तक बंद कर देनी चाहिए।
- चने की गहरी बुवाई (8 से 10 सेंटीमीटर गहरी) खेत में उखेड़ा की समस्या को कम कर देती है।
रतुआ रोग
रोगाणुः यूरोमाइसेस सिसेरी एरीत्नि
नैदानिक लक्षण
रतुआ रोग के प्राथमिक लक्षण चने के पत्तों पर छोटे, गोलाकार, भूरे व चूर्णित धब्बों के रूप में देखें जा सकते है जो कि बाद में मिल जाते है।
कुछ मामलों में बड़े धब्बों के चारों ओर छोटे धब्बों के घेरे देखे जाते है, जोकि पत्तों की दोनो सतहों पर मिल सकते हैं, लेकिन ज्यादातर पत्तियों के निचले हिस्से पर मिलते हैं।
रतुआ रोग के धब्बे (पस्तुलस) पत्तों के अलावा तने व संक्रमित पौधे की फलियों पर भी मिलते है।
बाद में ये गहरे रंग के टेलियोस्पोर्स के रूप में देखे जा सकते हैं।
रोग प्रबधंन
- सिफारिश की हुई प्रतिरोधी किस्में जैसे कि गौरव उगायें।
- खेत में यह रोग दिखाई देने पर कार्बंेडाजिम (1 प्रतिशत) या प्रोपिकानाजोल (0.1 प्रतिशत) का छिड़काव कर देना चाहिए।
- खेत को खरपतवार मुक्त रखें।
सूखा जड़ गलन
रोगाणुः राइजोक्टोनिया बटाटिकोला
नैदानिक लक्षण
सूखा जड़ गलन बीज व मिट्टी जनित रोग है। यह रोग फसल में फूल खिलने व फली बनने की अवस्था में प्रभावित करता है।
संक्रमित पौधों की पत्तियां व तने धूसर रंग की हो जाती हैं और पत्तियां झड़ जाती हैं।
जब पौधों को उखाड़ते है तो जड़ें मिट्टी में रह जाती है। रोग को पाश्र्व जड़ों की अनुपस्थिति के कारण आसानी से पहचाना जा सकता है।
गंभीर संक्रमण के कारण छोटे-गहरे रंग के स्क्लेरोशिया बन जाते है जो कि पौधों की जड़ों में देखे जा सकते है।
रोग प्रबधंन
- रोग प्रतिरोधक किस्में जैसे कि सी एस जे 515, एच सी 3, एच सी 5, एच के 1 या एच के 2 उगायें।
- जिस खेत में जड़ गलन की अधिक समस्या हो वहाँ चने की खेती नहीं करनी चाहिएं।
- फसल के अवशेषों को खेत में गहरा जोत देना चाहिए।
- बीजोपचार के लिए थीरम या बेनोमिल 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपयोग करें।
- गेहूँ और जई के साथ फसल चक्र अपनायें।
- पक्तियों में चने की बुवाई दूरी पर करें।
source : krishisewa
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