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तिवड़ा की खेती से किसान कर सकते हैं अच्छी कमाई

 

तिवड़ा की खेती

 

तिवड़ा को रबी में धान के बाद एकल फसल के रूप में जुताई करके लगाया जा सकता है.

तथा धान के खड़ी फसल में छिड़क कर उतेरा के रूप में लगाया जा सकता है, जिसमे धान के कटाई के पश्चात यह फसल उसी नमी का उपयोग करके वृद्धि करता है.

 

तिवड़ा एक प्रमुख दलहनी फसल है, धान आधारित कृषि में इसकी अहम भूमिका है, सीमित पानी एवं अन्य संसाधन होने पर भी तिवड़ा को उतेरा विधि द्वारा अच्छे से लगाया जा सकता है.

जहां पर अन्य दलहन फसल नहीं हो पता वहां पर तिवड़ा अच्छे से हो जाता है.

इसके दाल के साथ-साथ इसके कोमल पत्तियों को सब्जी के रूप बहुत पसंद किया जाता है और इसको सूखा कर भी रखा जाता है.

तिवड़ा (लाखड़ी) छत्तीसगढ़ की प्रमुख दलहनी फसल है. क्षेत्रफल के आधार पर धान के बाद सबसे अधिक रकबा इस फसल के अन्तर्गत आता है.

धान आधारित कृषि में इस फसल की अहम् भूमिका है.

 

सिंचाई के सीमित संसाधन होने के कारण द्विफसलीय कृषि पद्धति का अनुपम तरीका छत्तीसगढ़ के किसान, उतेरा के रूप में दीर्घकाल से अपनाते चले आ रहे है.

वैसे तो उतेरा के रूप में दलहन और तिलहन की अनेक फसलें ली जाती हैं, किन्तु तिवड़ा उनमें सफलतम होने के कारण आज भी इसकी खेती की जाती है.

उतेरा मे बीज के अलावा अन्य सस्य क्रियाएं न अपनाने के कारण इसकी औसत पैदावार बहुत कम है.

 

लाखड़ी में 25-28 प्रतिशत तक प्रोटीन के साथ-साथ अन्य उपयोगी पोषक तत्व पाए जाते हैं लेकिन इस के दानों में बीटा एन. ऑक्सीलाइट एल. 2,3 डाई – अमीनो प्रोपियोनिक अम्ल (ओ.डी.ए.पी.) नामक अपोषक तत्व भी पाया जाता है.

वैज्ञानिकों के मतानुसार तिवड़ा की अधिक मात्रा का सतत सेवन करने पर पैरों की स्नायु तंत्र पर विपरीत असर डालता है, और एक प्रकार का लँगड़ापन, जिसे लेथरिज्म कहते हैं, होने का अंदेशा रहता है।

नवीन किस्मों का विकास किया जा चुका है, जिनमें उक्त अपोषक (हानिकारक) तत्व की मात्रा नगण्य रह गई, जिसे निरंक करने के प्रयास किये जा रहे हैं.

उन्नत तकनीकी अपना कर एवं नवीन किस्मों को लगा कर इसकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है.

 

बुवाई का समय व तरीका

फसल प्रणाली

तिवड़ा को रबी में धान के बाद एकल फसल के रूप में जुताई करके लगाया जा सकता है तथा धान के खड़ी फसल में छिड़क कर उतेरा के रूप में लगाया जा सकता है, जिसमे धान के कटाई के पश्चात यह फसल उसी नमी का उपयोग करके वृद्धि करता है.

 

बुवाई का समय एवं तरीका

अक्टूबर की द्वितीय सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक इस फसल की बुवाई कर सकते हैं.

विलम्ब की अवस्था में बुवाई 30 नवम्बर तक कर सकते हैं.

खेती की अच्छी तरह से तैयार करने के बाद दुफन व देशी नारी हल अथवा सीड ड्रिल से बुवाई करें. कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. रखनी चाहिए.

यथासंभव बुवाई के लिए दो चाड़ी वाले नारी हल का उपयोग करें आगे वाली चाड़ी से खाद तथा पीछे वाली चाड़ी से बीज को डालना चाहिए.

 

बुवाई का समय

अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह से नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक इस फसल की बुवाई कर सकते हैं. विलम्ब की अवस्था में बुवाई 30 नवंबर तक कर सकते हैं.

 

उतेरा बोनी

सिंचाई के सीमित संसाधन होने के कारण से छत्तीसगढ़ के किसान उतेरा विधि दीर्घकाल से अपनाते चले आ रहे हैं.

वैसे तो उतेरा के रूप में दलहन (तिवड़ा, मूँग एवं उड़द) और तिलहन (अलसी, सरसों) की अनेक फसलें ली जाती हैं, किन्तु तिवड़ा उनमें कम लागत की सफलतम फसल होने के कारण आज भी इसकी खेती बडे़ क्षेत्र में की जाती है.

छत्तीसगढ़ में बीज के अलावा अन्य सस्य क्रियाएं और पौध संरक्षण उपाय न अपनाने के कारण इसकी औसत पैदावार अत्यंत कम है.

 

इस पद्धति में उपरोक्त फसलों के बीज को धान की खड़ी फसल में छिड़क दिया जाता है तथा लगभग 20-25 दिनों बाद धान की कटाई की जाती है.

इस समय तक उतेरा फसल अंकुरित होकर दो से तीन पत्ती वाली अवस्था में आ जाती है.

तिवड़ा की उतेरा खेती मुख्यतः डोरसा एवं कन्हार भूमियों में की जाती है.

इस पद्धति में धान काटने के 20-25 दिन पहले खड़ी धान की फसल में तिवड़ा के बीज को मध्य अक्टूबर से नवंबर के प्रारम्भ तक छिटकवां विधि से बुवाई करते हैं.

 

धान फसल की कटाई तक तिवड़ा फसल अंकुरित होकर 3-4 पत्तियों की अवस्था में आ जाती हैं.

तिवड़ा की उतेरा पद्धति से बोई गई फसल से अधिकतम उपज प्राप्त करने हेतु धान की शीघ्र, मध्यम अवधि की उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए तथा डोरसा एवं कन्हार भूमि का चुनाव करें.

उन्नत किस्मों के 80-90 कि.ग्रा. उपचारित बीज प्रति हेक्टेयर अर्थात सामान्य से दो गुना बीज प्रयोग करना चाहिए.

उतेरा फसल की बुवाई अक्टूबर माह तक कर लेनी चाहिए.

 

उन्नत नवीन किस्में

रतन

यह किस्म का विकास ऊतक संवर्धन विधि से भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 1997 में किया गया है.

छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में किये गये परीक्षणों में इस किस्म की औसत उत्पादकता 1300 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा उतेरा में 636 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर पाई गई.

इसमें अपोषक (हानिकारक.) तत्व की मात्रा 0.10 प्रतिशत से कम तथा प्रोटीन की मात्रा 27.82 प्रतिशत पाई जाती है.

 

प्रतीक

तिवड़ा की इस किस्म का विकास एल.एस.-8246 तथा ए.-60 के वर्ण संकरण विधि से इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर द्वारा वर्ष 1999 में किया गया है.

इस किस्म में हानिकारक तत्व की मात्रा नगण्य (0.076 प्रतिशत) है. इस किस्म के पौधे गहरे हरे रंग के 50-70 से.मी. ऊंचाई के होते हैं.

दाने बड़े आकार एवं मटमैले रंग के आते हैं. पकने की अवधि 110-115 दिन तथा औसत उपज 1275 कि.ग्रा. (बोता) एवं उतेरा में 906 कि.ग्रा. है.

यह किस्म डाउनी मिल्ड्यू रोग के प्रति सहनशील है.

 

महातिवड़ा

यह किस्म गुलाबी फूलों वाली तथा कम ओ.डी.ए.पी., बड़ा दानों वाली (लाख) किस्म है. इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर से विकसित यह किस्म 2008 में जारी की गई तथा 90-100 दिनों में पकने वाली 12-14 क्विं./हे. उतेरा खेती उत्पादकता वाली किस्म है.

यह भभूतिया रोग निरोधक है. इस किस्म में प्रोटीन 28.32 प्रतिशत तक पाया जाता है.

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