देश में हर साल कुछ हानिकारक कीटों के प्रकोप से विभिन्न फसलों को काफी नुकसान होता है, जिसके चलते उन फसलों के उत्पादन में गिरावट आ जाती है। इनमें कुछ कीट (कटुआ कीट) ऐसे होते हैं जो फसलों को 30 प्रतिशत तक का नुकसान पहुंचा सकते हैं ऐसे में उन कीटों का समय पर नियंत्रण करना अतिआवश्यक है।
कटुआ भी उन कीटों में से एक है जो पौधों को तने के पास से काटकर काफी नुकसान पहुँचता है।
किसान ऐसे करें इसका नियंत्रण
- कटुआ कीट दलहन, अनाज और सब्जी फसलों ख़ासकर आलू, गोभी, मटर, भिंडी, शिमला मिर्च, बैंगन, टमाटर, खीरा, मक्का, चना तथा सरसों को अत्याधिक नुकसान पहुंचाता है। यह कीट पूरे भारत में मैदानी क्षेत्रों से लेकर ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों तक पाया जाता है।
- इस कीट की इल्लियाँ दिन के समय मिट्टी की ऊपरी सतह में छिपकर रहती हैं। रात के समय वे जमीन के बाहर आकर छोटे पौधों को जमीन की सतह के थोड़ा ऊपर से काट देती हैं। ये पत्तों और कोमल तनों को खाती हैं।
- इसके कारण खेत में पौधों की संख्या प्रत्यक्ष रूप से कम हो जाती है। इनके इसी व्यवहार की वजह से इनकों ‘कटुआ कीट’ का नाम दिया गया है।
कटुआ कीट का वैज्ञानिक नाम क्या है?
इस कीट की मुख्यतः दो प्रजातियाँ होती हैं इसमें से एक है एग्रोटिस सेटिजम आम कटुआ कीट और दूसरी एग्रोटिस इपसिलोन- काला कटुआ कीट।
दोनों ही प्रजातियाँ विभिन्न प्रकार की सब्जियों, फूलों और फसलों को नुकसान पहुंचाती है।
पहली प्रजाति एग्रोटिस सेजिटम ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है और दूसरी एग्रोटिस इपसिलोन- काला कटुआ मध्य पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है।
यह दोनों प्रजातियाँ ही विभिन्न फसलों को लगभग 30 प्रतिशत तक का नुकसान पहुँचा सकती हैं।
कटुआ कीट का जीवन चक्र
इस कीट के पतंगों की संख्या मई-जून और सितम्बर-अक्टूबर के दौरान बहुत अधिक होती है।
वयस्क पतंगों का शरीर 18 से 22 मिमी. लम्बा और फैले हुए पंखों की चौड़ाई 40 से 45 मिमी. होती है।
मादा के अगले पंख पीले–भूरे तथा काले रंग के होते हैं। एक मादा 400 से 1000 अंडे तक दे सकती है।
अंडे का विकास 3 से 5 दिनों में होता है। अंडे शुरू में सफ़ेद लेकिन समय के साथ भूरे रंग में बदल जाते हैं।
सुंडी अवस्था 24 से 40 दिनों की होती है। पूर्ण विकसित सुंडी 40 से 45 मिमी. लम्बी हो जाती है।
सुंडी शुरू में हरे-स्लेटी रंग की होती है। पूर्ण विकसित होने के बाद सुंडी मिट्टी में 3 से 10 सेंटीमीटर गहराई पर प्यूपा बनाती है।
यह प्यूपा 10 से 15 दिनों के बाद वयस्क में परिवर्तित हो जाता है। इसका पूर्ण जीवन चक्र 40 से 45 दिनों का होता है।
कटुआ कीट के फसलों पर प्रकोप के लक्षण
यह कीट अपने जीवनकाल में केवल सुंडी (इल्ली) वाली अवस्था में ही फसलों को नुकसान पहुंचाता है। सुंडी की पांचवी एवं छठी अवस्थाएँ अत्यधिक नुकसानदायक होती है। यह कीट साधारणत: रात के समय फसलों को क्षति पहुंचाते हैं।
सुंडियाँ पौधों को जमीन की सतह से काटकर पूरी तरह से अलग या आधा काटती हैं। इससे पौधे लटक जाते हैं और पीले पड़ जाते हैं। ये पौधों की पत्तियों को खाकर छेड़ कर देती हैं।
यह कीट कटे हुए पौधों के अवशेषों को जमीन के अंदर ले जाता है और दिन के समय उन्हें खाते है।
खेत में कटे हुए पौधे और पत्ती को देखकर किसान अंदाजा लगा सकते हैं कि कटुआ कीट का प्रकोप शुरू हो गया है।
कीट का प्रकोप अलग-अलग फसलों और क्षेत्रों में अलग-अलग तरीके से देखने को मिलता है।
फसल को बचाने के लिए क्या करें?
- किसानों को नई फसल लगाने से पहले खेत से खरपतवार और पुरानी फसल के अवशेष खेत से निकाल देना चाहिए नहीं तो कीट की इल्लियाँ खेत में रहकर इन अवशेषों को खाती रहेंगी।
- खेत की अच्छे से जुताई कर लेनी चाहिए, जिससे दूसरे कीट एवं पक्षी इन्हें खा सकें।
- इस कीट के वयस्क शाम के समय सक्रिय होते हैं और रौशनी की तरफ आकर्षित होते हैं। इस प्रकार इन्हें प्रकाश प्रपंच के उपयोग से पकड़कर नष्ट किया जा सकता है।
- खेत के चारों तरफ सूरजमुखी की फसल लगानी चाहिए, सूरजमुखी कटुआ कीट को आकर्षित करते हैं और फसल तक पहुँचने से पहले ही इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है।
- जब कटुआ कीट छोटे होते हैं उसी समय इनका नियंत्रण करना सही रहता है, खेतों में फसल बुआई अथवा पौध रोपण के तुरंत बाद नियमित निगरानी करनी चाहिए। इस दौरान सुबह के समय कटे हुए छोटे पौधों के आसपास की जमीन में सुंडियां छुपी होती है। ऐसे में उनको निकालकर नष्ट कर लेना चाहिए। यदि पांच प्रतिशत से ज्यादा पौधे कटे हुए पाये गये हों, तो फिर कीट को नियंत्रित करना आवश्यक है। कुछ फसलों जैसे – टमाटर, मिर्च में निगरानी फसल तोड़ने तक करनी चाहिए।
- फसल में डेल्टामेथ्रिन 2.8 ई.सी. 750 मिलीग्राम प्रति हेक्टेयर या क्लोरपाइरिफाँस 20 ई.सी. 2.25 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
- ये कीट रात्रि के समय सक्रिय होते हैं ऐसे में कीटनाशकों का इस्तेमाल शाम के समय करना चाहिए और इनका छिड़काव पौधों के तने की तरफ ही करना चाहिए।
- यदि रसायनों का प्रयोग न करना हो तो किसान रोगजनक फफूंद जैसे – मेटाराइजियम एनीसोप्ली तथा ब्युवेरिया बेसियाना का इस्तेमाल कर सकते हैं। रोगजनक सूत्रकृमि जैसे – हैटरोरेहबडाइटिस बैक्टिरियओफोरा एवं वायरस जैसे एनपीवी भी कटुआ कीट की रोकथाम के लिए काफी प्रभावी हैं। जैविक नियंत्रण के लिए जमीन में पर्याप्त नमी होनी चाहिए।